खेल का बाजारीकरण.
एक है खेल (?), टी-२०. पूरी तरह से बाज़ार-नियंत्रित है. इसीलिए न तमीज से खेला जाता है, न तमीज से देखा जाता है. और ये उस क्रिकेट का सबसे छोटा संस्करण है जिसे
जेंटिलमेंस गेम कहा जाता है, अर्थात सभ्य लोगों
का खेल!
अब बाज़ार हमारे उसूलों/मूल्यों
को भी नियंत्रित करने की चेष्टा कर रहा है. जिसे बाज़ार ठीक कहेगा, हमारे बच्चे उसे ही ठीक मानेंगे, जिसे बाज़ार सही कहेगा, उसे ही हमारे बच्चे सही कहेंगे. इस तरह देखा जाये तो
बाजार माँ-बाप और गुरु की जगह लेने को उतारू दिख रहा है.
बाज़ार हर काम को व्यापार और हर
परिणाम को नफा-नुकसान के तौर पर देखता है. वह अपना नफा-नुकसान केवल पैसे से ही आँकता
है, उसके सामाजिक-सांस्कृतिक (दु:)परिणाम से नहीं. इसलिए कहीं ऐसा न हो जाये कि
बाज़ार के इस कुचक्र में फंसकर हम भी पैसे के गुणा-भाग में लगे रहें और तबतक काफी
देर हो जाये. हम अपने जिन बच्चों को इंसान बनाना चाह रहे थे, वो ऐसे रोबोट बन जाएँ
और नोटों से संचालित होने लगें! और तमीज से खेलना और देखना तो दूर, वे तमीज से बात
करना भी भूल जाएँ.
तमीज क्या चीज़ है, यह बाज़ार न
तय करे, इसके लिए हमें खबरदार होना ज़रूरी है, और समझदार होना भी. क्योंकि ज़िंदगी
टी-२० नहीं है, टेस्ट मैच है, जिसमें धैर्य, अनुशासन, मेहनत, समझदारी,
साझेदारी.... और तमीज सब ज़रूरी हैं!
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