मैं
और मेरे गाँव का बरगद का वो दरख़्त
पिछले सत्रह सालों से उसे देख रहा हूँ!
लड़कियों पर जवानी छा गयी,
लड़कों में दीवानगी आ गयी,
बुजुर्गों ने डाल दिए हथियार-
बदलाव की धार के आगे.
कुछ सो गए, कुछ जागे.
खपरैल की छतों पर एस्बेस्टस चढ़ गया.
सबकुछ कढ़ गया, बढ़ गया
पर नहीं बदला
तो मेरे गाँव का बरगद का वो दरख़्त!
पिछले सत्रह सालों से उसे देख रहा हूँ!
न वह आँधियों में कभी झुका,
न पतझड़ में कभी विचलित हुआ.
सोचता हूँ काश!
हमारी ज़िंदगी भी ऐसी होती,
अपनी जड़ों के सहारे अपनी जगह पर दृढ.
अपनी ज़मीन से जुड़े होते,
कम-से-कम अपनी सभ्यता तो न खोते!
पिछले सत्रह सालों से उसे देख रहा हूँ!
उसके पहले
मैंने उसका तना देखा था,
उसकी टहनियाँ देखी थीं,
उसके पत्ते देखे थे,
पर नहीं देखा था तो उसकी जड़ें.
होश संभालते ही अगर उसकी जड़े देख लेता,
तो समझ पाता-
खुशहाली का राज़
च्यवनप्राश या लाइफबॉय में नहीं बसता,
बल्कि उस आत्मा में बसता है
जो हरी-भरी रहती है,
शुद्ध-खरी रहती है,
जैसे
हमारे गाँव के बरगद के उस दरख़्त की आत्मा!
-सौरभ श्रीवास्तव
और मेरे गाँव का बरगद का वो दरख़्त
पिछले सत्रह सालों से उसे देख रहा हूँ!
लड़कियों पर जवानी छा गयी,
लड़कों में दीवानगी आ गयी,
बुजुर्गों ने डाल दिए हथियार-
बदलाव की धार के आगे.
कुछ सो गए, कुछ जागे.
खपरैल की छतों पर एस्बेस्टस चढ़ गया.
सबकुछ कढ़ गया, बढ़ गया
पर नहीं बदला
तो मेरे गाँव का बरगद का वो दरख़्त!
पिछले सत्रह सालों से उसे देख रहा हूँ!
न वह आँधियों में कभी झुका,
न पतझड़ में कभी विचलित हुआ.
सोचता हूँ काश!
हमारी ज़िंदगी भी ऐसी होती,
अपनी जड़ों के सहारे अपनी जगह पर दृढ.
अपनी ज़मीन से जुड़े होते,
कम-से-कम अपनी सभ्यता तो न खोते!
पिछले सत्रह सालों से उसे देख रहा हूँ!
उसके पहले
मैंने उसका तना देखा था,
उसकी टहनियाँ देखी थीं,
उसके पत्ते देखे थे,
पर नहीं देखा था तो उसकी जड़ें.
होश संभालते ही अगर उसकी जड़े देख लेता,
तो समझ पाता-
खुशहाली का राज़
च्यवनप्राश या लाइफबॉय में नहीं बसता,
बल्कि उस आत्मा में बसता है
जो हरी-भरी रहती है,
शुद्ध-खरी रहती है,
जैसे
हमारे गाँव के बरगद के उस दरख़्त की आत्मा!
-सौरभ श्रीवास्तव