गीदड़ बुढा गया...
शिकार कर पाने में असमर्थ हो गया. अपनी गुफा में पड़ा-पड़ा भोजन-पानी के जुगाड़ के
बारे में सोचने लगा. ठीक से खाना-पानी न मिल पाने के कारण उसकी दशा खराब होने लगी.
एक दिन उसने आइना देखा, आँखें धंस गयी
थीं और दाढ़ी बढ़ गयी थी... मरियल दीखने लगा था. उसने सोचा, अगर ऐसा ही रहा तो उससे
तो जंगल का कोई जानवर डरेगा ही नहीं, शेर अपने शिकार का हिस्सा तो पहले ही देने से मना कर चुका
था.. फिर तो वो मर जाएगा.. कल ही तो बिल्ले ने भी कहा था कि तुम बूढ़े लगने लगे हो!
बढ़ी हुई दाढ़ी तुम्हारे बुढापे को और बढ़ा रही है. ख्याल आया कि दाढ़ी बनवा ली जाये.
सो बाहर निकला,
कल्लू नाई से
शेविंग कराने. रस्ते में शेर का
शावक टकरा गया;
बोला, बाबा जी परनाम! थोड़ा आगे
बढ़ा, तो हिरन का छौना खड़ा था.
वह डरकर भागा नहीं, सादर दंडवत किया-
बाबा जी नमस्कार! गीदड़ चौंका, क्या वह इतना
जीर्ण-शीर्ण हो गया था कि लोग उसको बूढ़ा समझने लगे थे, उससे डरना छोड़ दिए थे..
अचानक उसकी नज़र वहां गिरे एक चश्में पर
पड़ी... उसने चश्मा उठाकर आँखों पर रखा तो उसे जंगल हरा-हरा दिखने लगा. दूर-पास खड़े
तमाम प्राणी छोटे-छोटे दिखने लगे. अब वो खुद को वाकई में बड़ा समझने लगा. गीदड़ खुश
हो गया, दाढ़ी बनवाने का ख्याल छोड़
दिया और एक वटवृक्ष के नीचे आसन जमाकर बैठ गया.
उसको बहुत समय तक ध्यानमग्न देखकर
सारे प्राणी अचरज में पड़ गए... उन्हें लगा कि गीदड़ में कोई ऊपरी शक्ति आ गयी है...
लोग जुटने लगे,
भीड़ बढ़ने लगी.
धूप-बत्ती होने लगा, प्रसाद चढ़ने लगा...
बाबा गीदड़ दास की जय-जयकार होने लगी... किसी ने सुझाया, इन्हें बाबा मत कहो, इतने बड़े महात्मा के लिए
बाबा बहुत छोटा शब्द लगता है.. तय हुआ कि गीदड़ दास को आपू कहा जाएगा, आपू अर्थात आध्यात्मिक
पुरुष!
गीदड़ को तो
मन-मांगी मुराद मिली, चढावे-पर-चढावा..
छककर खाने लगा और सेवा करवाने लगा.. वक्त-माहौल देखकर प्रवचन भी सुनाने लगा...
पंचायत करके छोटे-मोटे फैसले भी सुनाने लगा... अब गीदड़ की मौज
हो गयी... खाने को पकवान और सेवा-टहल के लिए अनगिनत दास... और कभी रात-बिरात मौका
लग जाए तो दो-एक छोटे-मोटे प्राणियों का भी भोग लगाने लगा...
फिलहाल गीदड़ की
दूकान सजी है,
उसका बाजार गर्म
है... भोले-भाले छोटे-मोटे प्राणियों की संख्या धीरे-धीरे घाट रही है, पर इस ओर अभी किसी का
ध्यान गया नहीं है.. जबतक ऐसा है, तबतक गीदड़ आपू की
पौ-बारह है!